मौत की पटरी पर घर वापसी, मजबूर हूं क्योंकि"मजदूर" हूं.......



शिमला (कंचन शर्मा)

कोरोनावायरस के काल में जबकि पूरी दुनिया थम चुकी है ऐसे में हमारे देश में लाखों-करोड़ों मजदूर भूख प्यास से बेहाल, पैरों में छाले लिए दिन रात घर वापसी के लिए सैंकड़ों मील लंबा दुरुह सफर करने को मजबूर हैं इससे विकट स्थिति इन मजदूरों के लिए और क्या हो सकती है!
इसी प्रकरण के चलते औरंगाबाद में  ट्रैक पर सोए ट्रेन से मजदूरों के कटने की खबर ने दिल झकझोर कर रख दिया। पीड़ा के साथ लिख रही हूं कि निर्माण के किसी भी क्षेत्र में सबसे ज्यादा पसीना बहाने वाले आज इस विकट समय में भूख,प्यास और पैदल चलने की थकन में सबसे ज्यादा आंसू बहा रहे हैं।
" सो जाते हैं फुटपाथ पे अखबार बिछाकर
मजदूर कभी नींद की गोली नहीं खाते"

लिखने वाले ने भी क्या ही सोचा होगा कि एक दिन यही मजदूर रेल की पटरी को सिराहना  बनाकर ट्रेन से कटकर सदा सदा के लिए सो जाएंगे।

"थकान मजदूरी की होती तो उठ भी जाते,ये तो मजबूरी की थकान थी जिसे आसरा दिया भी तो कैवल  मौत ने ।"

न केवल बिहार बल्कि पूरे देश के मजदूर अपने अपने घरों की वापसी में तिल तिल को मजबूर हैं।उनके पास शहरों में काम नहीं रहा, देने को मकान का किराया नहीं रहा,खाने को रोटी नहीं,जाने को किराया नहीं,सरकार से मदद नहीं।आम इन्सान को इनसे सरोकार नहीं। ऐसे में मजदूर घर वापसी नहीं करेगा तो क्या करेगा। सड़कों से जाते हैं तो पुलिस रोकती है, ट्रेक से चलें तो ट्रेन काटती है,गांव से जाएं तो गांव वाले आपत्ति करते हैं।
कंधों पर भूख प्यास से बिलखते बच्चे,भूख से लड़खड़ाती टांगें ,पांवों में छाले और बहुत से तो नंगें पैर ही पत्थर ,कंकड़,कांटों भरी राह पर चलने को मजबूर हैं। चलते चलते इंतजार है तो केवल राह किनारे इन मजदूरों के लिए खाना खिलाने वाले कुछ सज्जन लोगों का। कुछ खाते हैं और कुछ बचा कर साथ रख लेते हैं, क्या मालूम आगे कुछ मिले न मिले।सभी मजदूरों की दुख भरी कहानी एक सी है। 

कुछ के भूख प्यास व थकान से मरने के समाचार हैं।घर वापसी के लिए जो ट्रेनें व बसें हैं वो पर्याप्त नहीं।लाक डाउन कब तक चलेगा इसकी कोई तारीख नहीं।इन मजदूरों के पास प्राइवेट गाड़ियों के लिए पैसा नहीं। आखिर क्यों इन लोगों के लिए राज्य सरकारें कुछ क्यों नहीं कर रही।करोड़ों अरबों रुपए कोविड फंड में दान किए जा रहे हैं।क्या इसमें से में इन मजदूरों के लिए कुछ भी नहीं।आज देश के चिकित्सकों, पुलिस,ट्रेफिक,सेना, सभी ऐशेंशियल सर्विसेज के लिए हम दिए जला रहे हैं,पुष्प वर्षा कर रहे हैं, घंटियों, थालियों की करतल ध्वनियों से सबका अभिनंदन कर रहे हैं।हां आज बहुत से सेक्टर के कर्मचारी, अधिकारी कोरोना वारियर के रुप में योद्धा की भांति कर्मवीर बनकर जान की परवाह किए बगैर मानव सेवा में लगे हुए हैं
 लेकिन इन मजदूरों के बारे में कोई क्यों नहीं सोच रहा जो ताउम्र खुद बेघर रहकर हमारे लिए आलीशान मकान बनाते है,खुद भूखे रहकर हमारे लिए अनाज बोते व ढोते हैं,नंगे रहकर हमारे लिए बड़े बड़े उद्योगों में निर्माण कार्य कर हमारी सुख सुविधा की वस्तुएं बना रहे हैं
, हमारे लिए जूते बनाने वाले नंगें पांव चलकर पांव के छालों से बेहाल हो रहे हैं।
एक प्रबुद्ध नागरिक होने के नाते मेरा निजी आवाहन है सरकार से कि जब तक एक एक मजदूर अपने घर सरकार के सहयोग से नहीं पहुंचता तब तक एक भी कोविड का पैसा किसी का भी मनोबल बढ़ाने के लिए खर्च न किया जाए। चिकित्सकों की मानव सेवा से मैं भी भाव विभोर हूं लेकिन हमारे राष्ट्र निर्माण में सहायक मजदूर तिल तिल सड़कों पर मरने को मजबूर हों इससे हमें फिजूलखर्ची पर एतराज है।
शर्म,दुख का विषय है कि हमारे मजदूर भाइयों की इतनी भी मदद नहीं कि वे जिंदा भी रह सकें।चंद सिक्कों की आस लिए अपने गांवों से पलायन किए हमारे मजदूर आखिर हमारे ही सपनों को मूर्तरुप देने के लिए शहरों में पहुंचते है और आज इस संकट की घड़ी में जबकि उनका केवल घर वापसी का ही सपना है वो भी हम  पूरा न कर सकें तो धिक्कार है कोविड फंड पर!धिक्कार है
महामारी की व्यवस्था पर। जहां आम लोग घरों में बैठकर मजाक , रेसिपीज सोशल मीडिया पर सर्व कर करके बोर हो चुके हैं। शराबी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए लंबी कतारें लगा रहे हैं।पढ़ा लिखा तबका सोशल डिस्टेंसिंग का अलाप लगा रहा है मगर कब तक।अगर मजबूर मजदूरों का ये बेबस काफिला कोरोना का वाहक बन गया तो कोरोना को थामना मुश्किल हो जाएगा और हम एक अंतहीन कोरोना काल के गर्त में धंसते जाएंगे जैसा कि आज  बिहार में पलायन से लौटे 96 मजदूर कोरोना संक्रमित पाए गए ।

मजदूर धीरज रख सकते थे अगर उनके खाने व रहने की व्यवस्था हर राज्य सरकार व जिनके पास वो काम करते थे वो लोग कर देते पर अफसोस उन्हें घर वापसी के लिए ट्रेन की तारीखों के अलावा कुछ नहीं मिला ऐसे में  पैदल घर वापसी के अलावा उनके पास कोई विकल्प शेष न था।अभी भी वक्त है यूं भी एक साथ सैंकड़ों  मजदूरों के चलने से सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ रही हैं बेहतर है इन्हें बिना किराया लिए रेलवेज के माध्यम से घर पहुंचा कर इनके कोरेंटाइन की उचित व्यवस्था की जाए।
कोरोनावायरस के संक्रमण के अलावा भी इन मजदूरों को स्वास्थय सुविधाओं की  पुरजोर आवश्यकता होगी।एक तबके तक  जो कि अपने घरों में पहले से ही मौजूद हैं उन तक फूड पैकेट्स पहुंचाने से ही कोविड मदद की इतिश्री नहीं हो जाती।

जब तक गंगा जमुनी हुई तरल थकी घर तकती मजदूरों की लम्बी दूरियां नापती निगाहें अपने घर में चैन की नींद नहीं सोती तब तक कोविड पर विजय पाने का सपना पूरा नहीं हो सकता।माना घर में रहना ही इसका इलाज है मगर भूखे पेट व्यवस्था को नहीं माना जा सकता।शुक्र है मजदूरों का केवल घर वापसी की जद्दोजहद में है बागी नहीं हुए,नमन तुम्हे मजदूर भाई।

किसी ने ही ठीक ही लिखा है
भूख से गरीबी से मजबूर हो गए
छोड़ी कलम किताबें तो मजदूर हो गए
ऊंची इमारतें मेरी मेहनत का सिला है
बेनाम मेरे काम से मशहूर हो गए
जिसके लिए कमाते थे वो रोटी भी मयस्सर न हुई
छाले हमारे हाथ पैर के नासूर बन गए।


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